मेरे प्यारे अलीग भाइयों,
2016 नवम्बर के मुशायरे में जब आप सबकी मुहब्बत में मैंने(फैज़ुल हसन) यूनियन का सदर होने के नाते "इमरान प्रतापगढ़ी" को मुशायरे में शिरकत की दावत दी तो क्या हुआ ! वह वाक़या आज आप सब से शेयर कर रहा हूँ ।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का ज़्यादातर छात्र इमरान प्रतापगढ़ी को क़ौम का शायर समझ रहा था, इस वजह से मुशायरे में बतौर शायर इमरान प्रतापगढ़ी को बुलाने की मांग की । मैं ने अपने नायब सदर नदीम अंसारी से इमरान का नम्बर लेकर कॉल किया, इमरान को अपना तआर्रुफ़ दिया, मुशायरे में आने की दावत दी।
"मैं ज़रूर आऊंगा, मगर मेरी फीस है" इमरान बोले, "ठीक है भाई, आप बताइए" मैं ने पूछा , "ढाई लाख रुपये फीस,सफर और रहने खाने का इंतिज़ाम" यह उनका जवाब मिला, तो मैं चौंक गया, क्योंकि मुशायरे का बजट ही कुल दो लाख रुपये था ।
मैं ने तमाम तरह से अपनी मजबूरी ज़ाहिर की फीस कम करने के लिए, वह न माने । आखिर में मैं ने यूनियन के साबिक़ नायब सदर बड़े भाई सैयद माज़िन ज़ैदी से बात कराई, उनके बात करने के बाद भी वह न माने और जवाब दिया कि " मैं तो जौहर यूनिवर्सिटी के मुशायरे में चला जाऊंगा, क्योंकि आज़म खान से तमाम काम बनेंगे और फीस भी मिलेगी"
तब इमरान को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की अहमियत बताई, बताया कि यहां 30000 छात्र होंगे और 10000 दूसरे लोग जो यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं ।तब उन्होंने ने कहा कि "दो लाख से कम नहीं हो सकता" । आखिर कार यह फैसला लेना पड़ा कि मुशायरा बगैर इमरान के ही कराया जाए । और वह मुशायरा हुआ भी और कामयाब भी रहा । जो दो लाख से भी कम खर्च में हुआ
शहीद आसिफा के लिए हो रहे इंडिया गेट पर प्रोटेस्ट में अपने लिए ज़िंदाबाद के नारे लगवाने वाले इस मौक़ा परस्त और जज़्बातों से खेलने वाले इंसान को क्या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी तारीखी सर ज़मीं पर आने की इजाज़त होनी चाहिए ?
भाइयों,
मैं ज़ाती तौर पर (एक अलीग होने के नाते) ऐसे इंसान को अपनी यूनिवर्सिटी के आंदोलन से दूर ही रहने में भलाई देख रहा हूँ, जबकि आंदोलन अपनी कामयाबी की तरफ गामज़न है। क्योंकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वफ़ादार पैदा करती है ना कि मौक़ा परस्तों को सर बिठाना सिखाती है ।
उस वक़्त यूनियन बहुत मायूस हुई और शर्मिंदगी महसूस की जब इमरान ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को पैसों की क़ीमत में तौल लिया था, जो कि अपनी यूनिवर्सिटी की इज़्ज़त व आबरू के ख़िलाफ़ बात थी । जिसकी कसक पूरी यूनियन और तमाम अलीग आज भी महसूस करते हैं ।
बाक़ी आप तमाम अज़ीज़म बेहतर समझ सकते हैं,मगर नवम्बर 2016 का यह वाक़या ज़रूर याद रखना!
आपका भाई ।
फैज़ुल हसन
साबिक़ सदर तलबा यूनियन...
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2016 नवम्बर के मुशायरे में जब आप सबकी मुहब्बत में मैंने(फैज़ुल हसन) यूनियन का सदर होने के नाते "इमरान प्रतापगढ़ी" को मुशायरे में शिरकत की दावत दी तो क्या हुआ ! वह वाक़या आज आप सब से शेयर कर रहा हूँ ।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का ज़्यादातर छात्र इमरान प्रतापगढ़ी को क़ौम का शायर समझ रहा था, इस वजह से मुशायरे में बतौर शायर इमरान प्रतापगढ़ी को बुलाने की मांग की । मैं ने अपने नायब सदर नदीम अंसारी से इमरान का नम्बर लेकर कॉल किया, इमरान को अपना तआर्रुफ़ दिया, मुशायरे में आने की दावत दी।
"मैं ज़रूर आऊंगा, मगर मेरी फीस है" इमरान बोले, "ठीक है भाई, आप बताइए" मैं ने पूछा , "ढाई लाख रुपये फीस,सफर और रहने खाने का इंतिज़ाम" यह उनका जवाब मिला, तो मैं चौंक गया, क्योंकि मुशायरे का बजट ही कुल दो लाख रुपये था ।
मैं ने तमाम तरह से अपनी मजबूरी ज़ाहिर की फीस कम करने के लिए, वह न माने । आखिर में मैं ने यूनियन के साबिक़ नायब सदर बड़े भाई सैयद माज़िन ज़ैदी से बात कराई, उनके बात करने के बाद भी वह न माने और जवाब दिया कि " मैं तो जौहर यूनिवर्सिटी के मुशायरे में चला जाऊंगा, क्योंकि आज़म खान से तमाम काम बनेंगे और फीस भी मिलेगी"
तब इमरान को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की अहमियत बताई, बताया कि यहां 30000 छात्र होंगे और 10000 दूसरे लोग जो यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं ।तब उन्होंने ने कहा कि "दो लाख से कम नहीं हो सकता" । आखिर कार यह फैसला लेना पड़ा कि मुशायरा बगैर इमरान के ही कराया जाए । और वह मुशायरा हुआ भी और कामयाब भी रहा । जो दो लाख से भी कम खर्च में हुआ
प्यारे भाइयों, आज जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी परेशानी में आई, और अपनी लड़ाई को पूरी अलीग बिरादरी खुद लड़ रही है जिसे तमाम इंसाफ पसन्द हिंदुस्तानियों का साथ मिल रहा है । अब ऐसे वक्त में इमरान इस मौके को जज़्बाती तौर पर भुनाने के लिए अलीगढ़ आने को चाह रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे नजीब, एखलाक और पहलू खान के मामले को जज़्बाती तौर पर भुनाया
शहीद आसिफा के लिए हो रहे इंडिया गेट पर प्रोटेस्ट में अपने लिए ज़िंदाबाद के नारे लगवाने वाले इस मौक़ा परस्त और जज़्बातों से खेलने वाले इंसान को क्या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी तारीखी सर ज़मीं पर आने की इजाज़त होनी चाहिए ?
भाइयों,
मैं ज़ाती तौर पर (एक अलीग होने के नाते) ऐसे इंसान को अपनी यूनिवर्सिटी के आंदोलन से दूर ही रहने में भलाई देख रहा हूँ, जबकि आंदोलन अपनी कामयाबी की तरफ गामज़न है। क्योंकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वफ़ादार पैदा करती है ना कि मौक़ा परस्तों को सर बिठाना सिखाती है ।
उस वक़्त यूनियन बहुत मायूस हुई और शर्मिंदगी महसूस की जब इमरान ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को पैसों की क़ीमत में तौल लिया था, जो कि अपनी यूनिवर्सिटी की इज़्ज़त व आबरू के ख़िलाफ़ बात थी । जिसकी कसक पूरी यूनियन और तमाम अलीग आज भी महसूस करते हैं ।
बाक़ी आप तमाम अज़ीज़म बेहतर समझ सकते हैं,मगर नवम्बर 2016 का यह वाक़या ज़रूर याद रखना!
आपका भाई ।
फैज़ुल हसन
साबिक़ सदर तलबा यूनियन...
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